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एनसीपीयूएल का अंतरराष्ट्रीय सेमिनार

भारत सरकार का उर्दू महकमा फ़रोगे उर्दू ज़बान काउंसिल का त्रिदिवसीय सम्मेलन - मर्ग़े बिस्तर पर कराहती उर्दू का मातम या उत्सव?

एस. ज़ेड. मलिक
इनदिनों हिंदुस्तान में उर्दू पर काफी चर्चा हो रही है, यहां तक कि अब लोकतंत्र के मंदिर में भी प्रमुखता से चर्चा होने लगी है, और जब लोकतंत्र के मंदिर जैसी जगहों पर किसी विषय वस्तु पर होने लगे, तो समझलो की वह वस्तु सत्तारूढ़ सरकार के लिये वोट बैंक बनने का माध्यम बन गया है। इसका मतलब की उर्दू हिंदुस्तान की बहुत मजबूत भाषा है। जो आज चर्चा का विषय बन चुकी है,  सदन में किसी सम्प्रदाय के विषय पर चर्चा का मतलब की वह विषय जीवित और मजबूती से समाज मे खड़ा है बेशक उसका इस्तेमाल किसी आम संस्था में न हो लेकिन उस विषय किसी विशेष समुदायें की भाषा बना कर उसका प्रचार प्रसार कर विशेष जातियों को संगठित करने में इस्तेमाल किया जाने लगा है तो स्पष्ट है कि उस विषय का स्तीत्व ज़मीन से जुड़ा हुआ है। आज उर्दू का भी यही हाल है, की हिंदी वाले भी उर्दू बोलने की कोशिश करते है, जबकी उर्दू हर हिंदुस्तानी के रूहो रवां में रचा बसा हुआ है। जबकि वर्तमान केंद्र और कुछ राज्यों की सरकारें उर्दू का स्तीत्व समाप्त करने की कोशिश कर रही है, जैसे अभी पिछले दिनों उत्तरप्रदेश विधानसभा सत्र के दौरान किसी विपक्ष द्वारा उर्दू को स्कूलों में अर्निवार्य विषय बनाने पर चर्चा किया तो मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने सदन में जैसे काली चण्डी का रूप धारण कर लिया, एक दम से विफर गये, पागलपन सा सवार हो गया, एक दम से सदन चिल्लाते हुए कहने लगे “स्कूलों में उर्दू अर्निवार्य करवा कर हिंदुओं को कठमुल्ला बनवाओगे, ऐसा हरगिज़ नहीं चलेगा, नहीं चलने देंगे, वह अपने पागलपन में अपने ही वाक्य में कई शब्द उर्दू बोल गये, यह उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के दुराग्रही मानसिकता का एक द्वेषित भाषण था, उनकी दुराग्रहीत द्वेषित भाषा की चर्चा जब सोशल मीडिया पर हो रही थी तब उसी दिन भारत की राजधानी दिल्ली में भारत सरकार का एक उर्दू विभाग, राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद, अर्थात नेशनल कौंसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंगुएज गोवरमेंट ऑफ इंडिया, द्वारा नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर स्थित लोदी रोड पर परिषद के निर्देशक डॉ. शम्स इक़बाल की अध्यक्षता में त्रिदिवसिये इन्तर्राष्ट्रीय उर्दू भाषा सेमिनार का आयोजन किया गया जिसमे कौंसिल की ओर से विश्व भर से उर्दू स्कॉलरों को आमंत्रित किया गया था, जिसके उद्घाटन वाले दिन आरएसएस के मुस्लिम मोर्चा के सर संचालक और भारत सरकार के संवाहक कहें या सलाहकार, श्री इंद्रेश कुमार जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित हो कर उर्दू को स्कूलों और यूनिवर्सिटी में मजबूती के साथ बढ़ावा देने की बात कर रहे थे तो वही उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री सदन में उर्दू को बैंड करने की बात कर रहे थे। अब इसे क्या जाये, सरकार की दुगली नीति, साज़िश या समाज हित ? एक तरफ उत्तरप्रदेश सरकार उर्दू को बन्द करना चाहती है तो दुसरीं तरफ केंद्र की सरकार उर्दू को बढ़ावा देने के लिये लाखो रुपये कर जगह जगह सम्मेलन करा रही है, जबकि केंद्र सरकार का प्रसार-प्रचार मंत्रालय के अधीन आकाशवाणी और दूरदर्शन ही भारतीय विभिन्न भाषाओं, सभ्यताओं और सांस्कृतियों को हिंदुस्तान के दूर दराज पहाड़ी जंगली ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचाने सबसे बड़ा माध्यम था, परन्तु भारत सरकार ने अपनी द्वेषित मानसिकता परिचय देते हुए 2014 के बाद धीरे धीरे आकाशवाणी और दूरदर्शन के लगभग हर कार्यक्रम को बन्द करवा दिया जिससे भारत की विभन्न सभ्यताओं और सांस्कृतिओं कि भाषाओं में कार्यक्रम प्रसारित किये जाते थे, जिससे समाज मे एक दूसरे समाज को जानने और समझने के प्रति श्रोताओं में उत्सुकता रहती थी और आपसी भाई चारे में लोग बंधे रहते थे। परन्तु यह हिंदुस्तानियों का दुर्भाग्य कहें या विडंबना की सत्ता की लालसा ने हिंदुस्तानियों में फुट डालने के लिए सरकार में बैठे कुछ स्वार्थी नमुवादी संगठित हो कर एक ऐसी सरकार का निर्माण कर लिया कि वह केवल सनातन को ऊपर रख कर धर्म के खेल में आस्था का विष दे कर आम पिछड़े गरीब मध्यवर्गीय अशिक्षित लोगों को इतना मस्त कर दिया कि उन्हें अब क्रिश्चन, बौद्ध और मुसलमान सांप नज़र आने लगे हैं, जिससे वह हमेशा डरे हुए रहते हैं और अपने डर के कारण उन्हें मारने पर उतारू हैं, इतना उनमें नफरत का विष भर दिया गया है, की सरकार की नीतियों का विरोध करने वाला कोई भी व्यक्ति जैसे उन्हीं का विरोधी हो, जबकि इसी समाज एक शिक्षित और उदारवादी वर्गों एक सभ्य समाज भी है जो क्रिश्चन, बौद्ध, और मुसलमानो के हितैषी भी हैं, और संरक्षक भी, जो हर समय मुसलमानो, क्रिश्चनो और बौद्धों के हर दुख सुख में शामिल है। लेकिन भारत सरकार अब भाषाओं में भी भेद भाव पैदा करने लग गई, जैसे उत्तर प्रदेश की योगी सरकार, ने पिछले दिनों जो सदन में किया वह किसी से अब छुपा नही है उसकी चर्चा पहले कर चुका हूं। वहीं पढ़े लिखे लोग जो अधिकारी के रूप में उच्च पद पर विराजमान हैं अब न चाहते हुए भी गुलाम की भांति खुशामदप्रस्त और सरकार की दलाली करने पर मजबूर हैं। वैसे लोग केवल ऐश-परस्त, जीवन व्यातीत और गरीब अशिक्षित बेरोजगार, ठेकेदारों पर अपना वर्चस्व स्थापित रखने के लिये, इंद्रेश कुमार जैसे लोगों की चाटुकारी कर रहे हैं, इसलिये की इन्ड्रीह जैसे लोग सरकार में न होते हुए भी सरकार चला रहे। 
सरकार ने उर्दू समाप्त करने के लिये, उर्दू अनुवादक का पद अपने हर विभाग से समाप्त कर दिये, इसपर किसी भी विभाग के आला अधिकारियों ने कभी आवाज़ नहीं उठाई, और तो और, सरकार के हां में हां मिला कर अपना पद बचाने की कोशिश कर रहे हैं। 
इसी नेशनल काँसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंगुएज जैसे उर्दू महकमे आज लगभग 15 वर्षों से कोई भी सलाहकार समिति तक नहीं बनाई गई, काँसिल के निर्देशक एक निजी गुलाम की भांति अपने पद की चिंता में सरकार की वाहवाही कर रहे हैं।
 बहरहाल पिछले दिनों 23 फरवरी को राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद द्वारा विश्व उर्दू सम्मेलन का समापन किया गया, जिसमे हिंदुस्तान के विभन्न राज्यों के अलावा बैरूनी मुल्क यानी विदेशों जैसे क़तर, कनाडा, और सऊदी अरबिया से भी उर्दू स्कॉलरों, उर्दुविदों और उर्दू के शुभ चिंतकों को आमंत्रित कर उन्हें बोलने का अवसर दिया गया तो वह सभी इस सम्मेलन में उर्दू पर अपने अपने तरीके से उर्दू पर क़सीदे पढ़े, और मर्ग़े बिस्तर पर कराहती उर्दू के दर्द को बयां करते रहे लेकिन धाक के तीन पात, तीन दिनों तक इसी बात पर चर्चा होती रही और लोग विलाप करते हुए कहते रहे कि समाज और घरों से धीरे धीरे उर्दू लुप्त हो रही है, समस्याएं, अर्थात मुश्किलें अर्थात मसायल लग भग सभी ने इस उर्दू सेमिनार में उपस्थि अतिथियों ने सुनाया, परन्तु समाधान किसी के पास देखने को नहीं मिला, इसलिये की उर्दू पर रोने वाले ही अपने नस्लों को कॉन्वेंट स्कूलों भेज कर उनके दिली दिमाग से उर निकाल कर अंग्रेज़ी में रोटी इज़्ज़त का साधन बना दिया दिया और वही लोग घड़याली आंसू बहा रहे हैं। जबकि  समाधान अर्थात मसले का हल उपाय क्या होना चाहिए जिसकी कि उर्दू हर हिंदुस्तानी की आम ज़बान बन जाये, ऐसा क्या करें? विचार इस पर होना चाहिए था। जब कि सभा और सेमिनारों में शुद्ध उर्दू बोलने वाले भी अपनी आम बोलचाल की भाषा मे मिश्रित भाषा का उपयोग करते हैं बल्कि आज हर इंसान मिश्रित भाषा का उपयोग कर रहा है, और सब से कमाल की बात यह कि उर्दू से नफरत करने वाले भी उर्दू में ही गालियों का उपयोग करते हैं। 
बहरहाल – यह उर्दू वालों का दुर्भाग्य कहें या विडंबना, या गहरी साजिश की एक ओर भारत सरकार अपने उर्दू महकमे जैसे राष्टीय उर्दू भाषा विकास परिषद को सेमीनार और अन्य कार्यक्रमों को दिखाने के लिए लाखों रुपये खर्च कर रही है वही दुसरीं ओर आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसे ब्रॉडकास्टिंग संस्थानों से उर्दू के सारे छोटे बड़े कार्यक्रमों को हटा दिया, जबकि भारत के दूर दराज में इन्ही के माध्यम से कम से कम लोग सुन कर ही सही अपने घरों में उर्दू की नक़ल कर अपने परिवार में उर्दू भाषा का उपयोग कतरे रहते थे, लेकिन सरकार की द्वेषित दुराग्रहीत मानसिकता ने अब उर्दू सुनने वालों का वह भी साधन बन्द कर दिया जिससे वह सुन कर उर्दू बोलने का अभ्यास कर अपनी सभ्यता और संस्कार को सुंदर बनाने का प्रयास करते थे।
हिन्दुतान की सम्पूर्ण आबादी में मात्र लगभग 17 प्रतिशत ही स्वर्ण जाती के लोग भारत सरकार के उच्च पद पर बैठे नीति बनाते हैं, और 83 प्रतिशत को इनके बनाये नीतियों पर अमल करना पड़ता है, यदि इनकी नीतियों का किसी ने विरोध किया तो उस पर देश द्रोही की मुहर लगा कर उसे जेल में डाल दिया जाता है, अंबेडकर द्वारा बनाये गये संविधान में केवल एक ही प्रावधान ऐसा है जिस का भारत की लगभग हर राजनीतिक पार्टियां सत्ता में आने के बाद अपने बहुसंख्यक होने का लाभ लेते हुए, संविधान में अपने हिसाब से संशोधन कर प्रधानमंत्री सहिंत सारे सांसद और विधायक जीवन भर मौज करते रहते हैं।  
भारत सरकार ने आकाशवाणी और दूरदर्शन से केवल उर्दू के ही नहीं, बल्कि हिंदी के भी लगभ सारे समाजिक और कार्यक्रम बन्द कर दिये, सिवा हिंदी का धार्मिक कार्यक्रम और बृजभाषा तथा आसमीया और  उर्दू खबरे का ही एक महकमा को सिर्फ दिखावे का बचा रखा हैं। यह एक गम्भीर समस्या है परन्तु उस पर अभी तक कोई भी उर्दू के हमदर्द, या उर्दुदान, उर्दू स्कॉलर्स, बोलने के लिये तैयार नहीं हैं। यूपीए सरकार तक राज्य सरकारों में पहले उर्दू अनुवादक की बहाली होती थी, लोग उर्दू जानने वाले उर्दू में दरखास्त एप्लिकेशन दिया करते थे धीरे धीरे कुछ सम्परदायिक मानसिकता वाले अधुकारियों के दुराग्रहीत द्वेष की भेंट चढ़ गई तो लोग उर्दू में दरख्वास्त देना बंद कर दिया और सरकार से उर्दू अनुवादक की बहाली रोक दी गई, एक कहावत है, “अपना सोना खोटा तो, पराए का क्या दोष। जिनकी भाषा उर्दू सभ्यता उर्दू संस्कार उर्दू, सांस्कृति उर्दू, वही लोग अपने बच्चों को इंग्लिश कान्वेंट स्कूलों में पढ़वा रहे हैं, जहां उर्दू विषय पढ़ाना तो दूर वह लोग उर्दू के बारे में सोंच भी नहीं सकते।
 फिर यह रोना किस बात का?
भारत की सभ्यता सांस्कृति, भाषाएं बचाने और बेहतर समाज बनाने और उसे स्थापित रखने के लिये पहले संगठित होना पड़ेगा और फिर से एक नई क्रांति शुरुआत करनी होगी। वरना घुट घुट के मर रहे हो और तुम्हारी नस्ले भी मरती रहेंगी।

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