एस. ए. इमाम
सरकार का दावा है कि वह उर्दू की तरक़्क़ी और तालीम के लिए संजीदा है। मगर हक़ीक़त यह है कि दूरदर्शन और आकाशवाणी से उर्दू मजलिस और उर्दू के प्रोग्राम ख़त्म कर दिए गए। स्कूलों में उर्दू शिक्षकों की बहाली रोक दी गई। उर्दू कौंसिल में उर्दू की तालीमी और अदबी स्कीमें बंद कर दी गईं।
इसके बावजूद मीडिया में प्रचार किया जाता है कि “सेमिनारों के ज़रिये उर्दू वालों को जागरूक किया जा रहा है”।
हक़ीक़त यह है कि इन सेमिनारों से सिर्फ़ सरकारी महकमो के ओहदेदार निर्देश मंत्रियों के चापलूस और चाटुकार कुछ मंत्री जी को और कुछ अपनी झोली भर रहे हैं।
भारत सरकार द्वारा उर्दू के नाम पर जितना बजट मिलना चाहिये उसका इस साल आधा भी नहीं मिला है, लेकिन जो भी मिला है उस बजट में आरएसएस के सरकारी ज़िम्मेदार मंत्री और चापलूस सरकारी मुलाज़िम सेमिनार के नाम पर साल में कम से कम 2, 4 करोड़ तो सरकारी खजाने से निकाल ही लेंगे और किसी छोटे मोटे ऑडोटेरियं या होटल में बैठकें कर के दर्शकों से तालियाँ लगवाते हुये फोटो खिंचवा कर फाइल तैयार करा कर मंत्रालय की शोभा बढ़ा देंगे।
यह दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उर्दू को मारने वाले ही उर्दू के नाम पर आंसू भी बहा रहे हैं और मांग भी रहे और अपना झोली भी भर रहे है, और उर्दू सभ्यता और संस्कार को जनने वाली नफासती ज़ुबान जिसकी मिठास की दरया बहती थी आज वही ज़ुबान सुखी तपती रेत के समान हो गई।
आज का सबसे बड़ा तंज़ यह है कि अवाम उर्दू को जोड़ते हैं, मोहब्बत से निभाते हैं। मगर सियासतदान उर्दू सुनकर तिलमिला उठते हैं। देश के बड़े नेता उर्दू को “ग़ुसपैठियों की ज़ुबान” कह देते हैं। और वहीं, उर्दू अवार्ड लेने की होड़ लगी रहती है।
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यह कैसा खेल है? उर्दू से नफ़रत और उर्दू अवार्ड से मोहब्बत उर्दू को मिटाने की साज़िश और उर्दू सेमिनारों की नुमाइश सच यही है कि उर्दू की तरक़्क़ी सेमिनारों और तालियों से नहीं होगी।
इसके लिए स्कूलों में उर्दू की बुनियाद को मज़बूत करना होगा, उर्दू शिक्षकों की बहाली करनी होगी, और रेडियो-टीवी पर उर्दू की आवाज़ वापस लानी होगी। वरना उर्दू की यह कराह एक दिन चीख़ बन जाएगी।
उर्दू को जिंदा रखने का दिखावा सेमिनारों, कॉन्फ्रेंसों और शायराना महफ़िलों से किया जा रहा है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उर्दू की बुनियाद खोखली की जा रही है।
रेडियो, दूरदर्शन पर कभी उर्दू की शानदार महफ़िलें होती थीं, आज उन्हें ख़त्म कर दिया गया।
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उर्दू काउंसिल में जो स्कीमें थीं, जिनसे उर्दू अदब, तालीम और तहक़ीक़ आगे बढ़ती थी, उन्हें या तो रोक दिया गया है या दिखावटी बना दिया गया है।
मगर मीडिया में यह प्रचार किया जा रहा है कि “सरकार उर्दू की तरक़्क़ी के लिए गंभीर है” और बार-बार सेमिनार करवाकर तस्वीर पेश की जाती है जैसे बहुत बड़ा काम हो रहा है। उर्दू वालों को “वाह-वाह” करने के बजाय हक़ और रोज़गार की मांग करनी चाहिए। उर्दू को बचाने के लिए क़ौम और समाज की सच्ची कोशिश ज़रूरी है, न कि सरकारी नुमाइश।
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